इनके पास न पैसा था और न ही कोई घर परिवार लेकिन इन्होंने अपने विश्वास के दम पर हज़ारों अनाथ बच्चों को घर परिवार व एक माँ की छाँव प्रदान की।

एक वक्त ऐसा भी था जब इन्होने भीख में मिले अनाज से जलती चिता पर रोटियां सेंक कर खाई थी। अपने जीवन में अनेक समस्याओं के बाद भी इन्होने अनाथ बच्चों को सँभालने का कार्य किया।

केवल 10 वर्ष की उम्र में इनका विवाह 30 वर्ष के श्री हरी सपकाल से करा दिया गया। बचपन तो जैसे तैसे बीता ही लेकिन पति भी ऐसा मिला जो उन्हें मारता पीटता और गलियां देता।

शुरूआती दिनों में वे शमशान में रहती थी। भीख मांगती खुद खाती और यदि कोई असहाय होता तो उसे भी खिलाती। जीवित रहने की अपनी संघर्ष यात्रा के दौरान सिंधुताई महाराष्ट्र के चिकलदरा आ गई।

अपने एक भाषण में उन्होंने कहा की लोगों को प्रेरणा प्रदान करने के लिए उनके जीवन की संघर्षमय दास्तान की कहानी हर जगह प्रसारित की जाए ताकि लोग खुद व खुद असहायों की मदद के लिए आगे आए।

यह वक्त उनके और उनके बेटी के अस्तित्व के लिए किसी संघर्ष से कम नहीं था। सिंधुताई ने गोद लिए अनाथ बच्चों की भूख मिटाने के लिए अपनी बेटी को पुणे के एक ट्रस्ट में भेज दिया ताकि वे दिन रात एक कर इन बच्चों का भविष्य बना सके।